A revered freedom fighter, Rafiq Azad was born in January 20, 1943, in the remote area of Guni in Tangail. Growing up, Azad never took to any form of sport. Books always were the focal point of the renowned poet’s early life.
Having completed his primary education under the British Indian education system at from Sadhuty Middle English School, situated in a neighboring village, Azad developed a keen interest towards writing at a young age.
It was 1971. A new nation, Bangladesh was born. That year changed the course of Rafiq Azad’s life, the same as millions of others. In place of his pen, he wielded a wooden rifle.
Azad was a member of Kader Siddiqui’s ‘Kaderia Bahini’ during the war of independence. He soon received the necessary arms and equipments from the treasury, provided by then finance secretary Khondokar Asaduzzaman.
After the Bangladesh war, Azad resigned from his teaching post at MM Ali College after being recruited in the first batch (1972-1973) of the Bangladesh Civil Service (BCS).
The 1974 famine lead to one of Azad’s most famous works, ‘Bhat Dey Haramjada’. It is a piece he has a few regrets over. ‘I believe the whole incidence was artificial, manmade, but at the same time, as a poet, I could not hold back at the news of such an ill-fated occurrence,’ he says.
In the middle of June 1987 Azad had an arrest warrant issued against him. Having resigned from his post at the Bangla Academy in 1984, he was working as acting editor of the weekly Robbar, a supplement of Ittefaq. ‘The warrant was issued against me for a publication that undermined Ershad’s rule,’ he recalls. ‘I was in hiding and somehow managed a stay order from court. But that chapter of my life came to a halt when the owner of Ittefaq, Moinul Hossain informed me that he was in no position to help me as the publications of the magazine had been brought to an end, leaving me unemployed,’ says Azad with a slight grin.
Azad returned to the Bangla Academy in 1995, to help assist the ‘Young Writers Project,’ taking up the role of poetics instructor. His participation at the Bangla Academy this time around though was rather short lived as in 1996, he was appointed as director of the ‘Tribal Cultural Academy,’ in Birishiri, Netrokona.
Source: http://www.newagebd.com/2007/dec/14/dec14/xtra_inner2.html
রফিক আজাদের ‘ভাত দে হারামজাদা’
ভীষণ ক্ষুধার্ত আছিঃ উদরে, শারীর বৃত্ত ব্যেপে
অনুভূত হ’তে থাকে – প্রতিপলে – সর্বগ্রাসী ক্ষুধা!
অনাবৃস্টি – যেমন চৈত্রের শষ্যক্ষেত্রে – জ্বেলে দ্যায়
প্রভূত দাহন – তেমনি ক্ষুধার জ্বালা, জ্বলে দেহ।
দু’বেলা দু’মুঠো পেলে মোটে নেই অন্যকোন দাবি,
অনেকে অনেক-কিছু চেয়ে নিচ্ছে, সকলেই চায়ঃ
বাড়ি, গাড়ি, টাকাকড়ি – কারোর বা খ্যাতির লোভ আছে;
আমার সামান্য দাবিঃ পুড়ে যাচ্ছে পেটের প্রান্তর –
ভাত চাই – এই চাওয়া সরাসরি – ঠাণ্ডা বা গরম,
সরু বা দারুণ মোটা রেশনের লাল চালে হ’লে
কোনো ক্ষতি নেই—মাটির শানকি ভর্তি ভাত চাই;
দু’বেলা দু’মুঠো পেলে ছেড়ে দেবো অন্য সব দাবি!
অযৌক্তিক লোভ নেই, এমনকি, নেই যৌন-ক্ষুধা-
চাইনি তোঃ নাভিনিম্নে পরা শাড়ি, শাড়ীর মালিক;
যে চায় সে নিয়ে যাক-যাকে ইচ্ছা তাকে দিয়ে দাও-
জেনে রাখোঃ আমার ওসবে কোনো প্রয়োজন নেই।
যদি না মেটাতে পারো আমার সামান্য এই দাবি,
তোমার সমস্ত রাজ্যে দক্ষযজ্ঞ কাণ্ড ঘ’টে যাবে;
ক্ষুধার্তের কাছে নেই ইস্টানিস্ট, আইন কানুন-
সন্মুখে যা-কিছু পাবো খেয়ে যাবো অবলীলাক্রমে;
থাকবে না কিছু বাকি –চ’লে যাবে হা-ভাতের গ্রাসে।
যদি বা দৈবাৎ সন্মুখে তোমাকে, ধরো , পেয়ে যাই-
রাক্ষুসে ক্ষুধার কাছে উপাদেয় উপচার হবে।
সর্বপরিবেশগ্রাসী হ’লে সামান্য ভাতের ক্ষুধা
ভয়াবহ পরিণতি নিয়ে আসে নিমন্ত্রণ করে!
দৃশ্য থেকে দ্রস্টা অব্দি ধারাবাহিকতা খেয়ে ফেলে
অবশেষে যথাক্রমে খাবোঃ গাছপালা, নদী-নালা,
গ্রাম-গঞ্জ, ফুটপাত, নর্দমার জলের প্রপাত,
চলাচলকারি পথচারী, নিতম্ব প্রধান নারী,
উড্ডীন পতাকাসহ খাদ্যমন্ত্রী ও মন্ত্রীর গাড়ি-
আমার ক্ষুধার কাছে কিছুই ফেলনা নয় আজ।
ভাত দে হারামজাদা, তা-না-হ’লে মানচিত্র খাবো।।
রফিক আজাদের এই কবিতাটি আবৃত্তির জন্য অনেকেই
খুঁজেন। আমারও ভালা লাগে এই কবিতাটি।
‘রফিক আজাদের শ্রেষ্ঠ কবিতা’—‘অব্যয়’ প্রকাশনার
১৪ ফেব্রুয়ারী ১৯৮৭ সালে প্রকাশিত গ্রন্থ থেকে তুলে দিলাম।- Albert Ashok
4 comments:
rly nic poem... proteti line jeno ak akti etihash...
কবির মৃত্যুতে গভীর শোক।
আপনার লেখাটিও দারুন হয়েছে।
ওপরে লেখা রফিক আজাদের জন্ম হয়েছে ২০ জানুয়ারী ১৯৪৩। কিন্তু উইকিপিডিয়ায় লেখা ১৪ ফেব্রুয়ারী ১৯৪২। তাহলে সঠিক কোনটা?
भात दे, हरामज़ादे ! / रफ़ीक़ आज़ाद
बहुत भूखा हूँ, पेट के भीतर लगी है आग, शरीर की समस्त क्रियाओं से ऊपर
अनुभूत हो रही है हर क्षण सर्वग्रासी भूख, अनावृष्टि जिस तरह
चैत के खेतों में, फैलाती है तपन
उसी तरह भूख की ज्वाला से, जल रही है देह
दोनों शाम, दो मुट्ठी मिले भात तो
और माँग नहीं है, लोग तो बहुत कुछ माँग रहे हैं
बाड़ी, गाड़ी, पैसा किसी को चाहिए यश,
मेरी माँग बहुत छोटी है
जल रहा है पेट, मुझे भात चाहिए
ठण्डा हो या गरम, महीन हो या मोटा
राशन का लाल चावल, वह भी चलेगा
थाल भरकर चाहिए, दोनों शाम दो मुट्ठी मिले तो
छोड़ सकता हूँ अन्य सभी माँगें
अतिरिक्त लोभ नहीं है, यौन क्षुधा भी नहीं है
नहीं चाहिए, नाभि के नीचे की साड़ी
साड़ी में लिपटी गुड़िया, जिसे चाहिए उसे दे दो
याद रखो, मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है
नहीं मिटा सकते यदि मेरी यह छोटी माँग, तो तुम्हारे सम्पूर्ण राज्य में
मचा दूँगा उथल-पुथल, भूखों के लिए नहीं होते हित-अहित, न्याय-अन्याय
सामने जो कुछ मिलेगा, निगलता चला जाऊँगा निर्विचार
कुछ भी नहीं छोड़ूँगा शेष, यदि तुम भी मिल गए सामने
राक्षसी मेरी भूख के लिए, बन जाओगे उपादेय आहार
सर्वग्रासी हो उठे यदि सामान्य भूख, तो परिणाम भयावह होते है याद रखना
दृश्य से द्रष्टा तक की धारावाहिकता को खाने के बाद
क्रमश: खाऊँगा,पेड़-पौधे, नदी-नाले
गाँव-कस्बे, फुटपाथ-रास्ते, पथचारी, नितम्ब-प्रधान नारी
झण्डे के साथ खाद्यमन्त्री, मन्त्री की गाड़ी
मेरी भूख की ज्वाला से कोई नहीं बचेगा,
भात दे, हरामज़ादे ! नहीं तो खा जाऊँगा तेरा मानचित्र।
मूल बांग्ला से अनुवाद : अमिताभ चक्रवर्ती
(1974 में बांग्लादेश में पड़े अकाल के दौरान लिखी गई कविता)
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